इससे पहले आप यह जाने कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की ताकत क्या है, और कितने बार भारत के पास इसमें शामिल के लिए मौका आया। उससे पहले आपको यह जानना चाहिए कि इसे बनाया ही क्यों गया। और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की हाल ही में हुई अमेरिका एवं संयुक्त राष्ट्र की यात्रा से यह विषय क्यों चर्चा के केंद्र में आ गया है और भारत कब तक इस लक्ष्य को प्राप्त कर पाएगा? हम सभी जानते हैं की 24 अक्टूबर 1945 को संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना की गई थी लेकिन आप में से ज्यादातर लोगों को यह नहीं पता होगा कि इसकी नींव द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान ही 1942 में रख दी गई थी एवं इस शब्द की उत्पत्ति भी अमेरिका के 32वें राष्ट्रपति फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने ही की थी।
सबसे महत्वपूर्ण बात भारत से जुड़ी हुई है और वह यह है कि एक गुलाम देश के रूप में भारत ने अपनी आज़ादी से पहले ही बतौर संस्थापक सदस्य के रूप में 01 जनवरी 1942 को संयुक्त राष्ट्र को अस्तित्व में लाने के लिए 26 देश जिसमें बिग-4 के रूप में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन एवं चीन; ब्रिटिश कॉमनवेल्थ सदस्य के रूप में ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा एवं दक्षिण अफ्रीका; अमेरिकी महाद्वीप के आजाद देशों के रूप में हैती, होंडुरास, निकारागुआ, डोमिनिकन रिपब्लिक, कोस्टारिका, अल साल्वाडोर, पनामा, क्यूबा एवं ग्वाटेमाला; और यूरोपीय देशों के रूप में युगोस्लाविया, चेकोस्लोवाकिया, बेल्जियम, नीदरलैंड, ग्रीस, लक्ज़मबर्ग, नॉर्वे एवं पोलेंड थे, के साथ मिलकर वाशिंगटन घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किया और विश्व शांति के सभी प्रयासों में अहम भमिका अदा करने की सहमति दी। इसे संघ को बनाने का मुख्य कारण था, दुनियाँ मैं शांति कायम रखते हुए तीसरे विश्वयुद्ध से रोकना। जिसके बाद 1945 में 51 देशों द्वारा सेन फ्रांसिस्को चार्टर पर हस्ताक्षर करने के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ अपने अस्तित्व में आया। इसी संयुक्त राष्ट्र संघ के 6 महत्वपूर्ण भागों में से एक है सुरक्षा परिषद, जो कि इस पूरी दुनिया का सबसे शक्तिशाली संगठन है। पूरी दुनिया में शांति स्थापित करना, देशों पर प्रतिबंध लगाना और युद्ध की स्थिति में शांति दूत मिशन भेजने का काम सुरक्षा परिषद ही करता है। इस सुरक्षा परिषद को चलाने की पूरी जिम्मेदारी द्वितीय विश्वयुद्ध के विजेता देशों ने संभाली यानी अमेरिका, रूस, फ्रांस, ब्रिटेन और चीन ने। अब यही से भारत की पूरी स्थिति बदली है और आज 72 सालों बाद भी प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरु की इस बात को लेकर आलोचना हो रही है कि भारत को मिलने वाली स्थायी सदस्यता को स्वीकार न करते हुए हिंदी-चीनी भाई भाई के नारे को जीवित रखने के लिए वह सीट उन्होंने चीन को दे दी।
लेकिन थोड़ा रूकिए, यहां कुछ और भी है जिसे जानना बेहद जरूरी है। 1955 में एक अफवाह थी कि भारत को सुरक्षा परिषद में स्थाई सदस्य बनने के लिए निमंत्रण आया है जिसके बाद सांसद डॉ. जे एन पारेख ने प्रधानमंत्री नेहरू से प्रश्न पूछा था कि क्या संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य के रूप में शामिल होने के लिए भारत को कोई औपचारिक ऑफर आया है जिसके प्रतिउत्तर में 27 सितंबर 1955 को जवाहरलाल नेहरू ने लोकसभा में खडे होकर यह जवाब दिया कि भारत को औपचारिक या अनौपचारिक किसी भी तरह का कोई ऑफर नहीं आया है। मगर एक पत्र था जहां से पूरा विवाद शुरू हुआ। जिसे उन्होंने 02 अगस्त 1955 यानी लोकसभा में जवाब देने से लगभग 2 महीने पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों को लिखी थी। यह पत्र जवाहरलाल नेहरू लेटर्स टू चीफ मिनिस्टर्स 1947-1964 नामक किताब के भाग 4 के पेज नंबर 237 में आज भी उपलब्ध है जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप से लिखा था कि अमेरिका की ओर से संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य के लिए एक अनौपचारिक सुझाव आया था जिसमें अमेरिका ने चीन को हटाकर भारत को स्थायी सदस्य के रूप में शामिल करने की सलाह थी लेकिन मैंने यह कह कर सलाह ठुकरा दी कि चीन हमारा पड़ोसी है और एक महान देश के साथ ऐसा करना ठीक नहीं होगा।
अब हमें यहां समझना होगा कि 1950 में जब अमेरिका ने भारत को यह प्रस्ताव दिया था उस समय जियोपोलिटिकल परिस्थितियां क्या थी और भारत ने यह सलाह क्यों ठुकराई, तो इसका कारण है चीन। क्योंकि लंबे समय से चली आ रही चीनी क्रांति पर 1949 में माओत्से तुंग की जीत हुई और उन्होंने चीन को कम्युनिस्ट देश घोषित कर दिया साथ ही तिब्बत पर कब्जा कर लेने के कारण भी अमेरिका चीन से नाराज हो गया। चूंकि अमेरिका लोकतंत्र समर्थक था इसलिए उसने चीन को निकालने के लिए लॉबिंग शुरू कर दी साथ ही इसी तनातनी में अमेरिका ने भारत को यह प्रस्ताव दिया कि चीन के बाहर होने के बाद हम पी-5 में शामिल हो जाएं। लेकिन उस समय चीन का साथ दिया सोवियत संघ ने। क्योंकि दोनों कम्युनिस्ट देश थे तो रूस ने सीधे-सीधे कहा कि अगर चीन बाहर हुआ तो रूस भी संयुक्त राष्ट्र संघ से ही बाहर चले जायेगा। इसलिए हमें यह समझना जरूरी है कि यह प्रस्ताव किसी संघ ने नहीं सिर्फ अमेरिका ने दिया था जिसे स्वीकार करने का मतलब था अमेरिका का समर्थक बनना और रूस एवं चीन के साथ दुश्मनी। इसलिए पंडित नेहरू ने गुटनिरपेक्ष पद्धति अपनाते हुए यह प्रस्ताव ही ठुकरा दिया जिससे कोई नाराज ना हो। हालांकि बहुत से लोग यह तर्क दे सकते हैं कि इसे ही तो निर्णय लेने की क्षमता कहते हैं जो कि नेहरू ने गंवा दी। लेकिन फिर से हमें यह समझना होगा कि भारत उस समय गरीबी से जूझ रहा था और पाकिस्तान से हमारी दुश्मनी चल ही रही थी ऐसे में सुझाव मान लेने के बाद चीन भी हमारा स्पष्ट दुश्मन हो जाता जबकि युद्ध के दौरान अमेरिका को हमारे सहयोग के लिए आने में ही हफ्तों लग जाते। हालांकि बाद में 1955 में रूस द्वारा भी एक पत्र नेहरू के पास आया था जिसमें भारत को 6वें स्थायी सदस्य के रूप में शामिल किए जाने का प्रस्ताव था लेकिन नेहरू ने पूरे परिषद की जगह सिर्फ एक देश से आए प्रस्ताव के कारण फिर से उसे ठुकरा दिया था
अब बात अगर वर्तमान भारत की करें तो आजादी के तीन साल बाद ही यानी 1950-51 में पहली बार अस्थायी सदस्य बना भारत अबतक 7 बार सुरक्षा परिषद में शामिल हो चुका है, जिसमें सबसे ज्यादा तीन बार श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश को सुरक्षा परिषद में अस्थायी सीट दिलाई व आखिरी बार प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 2011-12 में देश को सुरक्षा परिषद में पहुंचाया। लेकिन हाल ही में हुई 2021-22 की अस्थाई सदस्यता के लिए वोटिंग में आठवीं बार पूरे 55 देशों ने भारत का निर्विरोध चुनाव किया गया है जिसमें चीन व पाकिस्तान भी शामिल हैं। चुंकि हम यहां पर बात भारत की स्थायी सदस्यता की कर रहे हैं इसलिए यह जानना जरूरी है कि इस भूमिका के बावजूद पहली बार 1971 में भारत को सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य न होने की कमी तब खली, जब भारत ने बांग्लादेश को पाकिस्तान से आजाद कराने में अहम भमिका अदा की, लेकिन अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने बांग्लादेश की आजादी के लिए हई जंग में भारत को युद्ध का कारण करार दिया और सुरक्षा परिषद में भारत पर प्रतिबंधों की मांग की साथ ही पाकिस्तान की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली 7वें फ्लीट के लड़ाकू विमानों से लैस अपने यूएसएस इंटरप्राइजेज को हिंद महासागर में भेजा। हालांकि, सुरक्षा परिषद में पी-5 सदस्यों के इस प्रहार से भारत को बचाने का काम तत्कालीन सोवियत संघ (रूस) ने किया, जिसने अपने वीटो पावर का इस्तेमाल करते हुए भारत के खिलाफ अमेरिकी कदम को रोक दिया। हालांकि यह वाक्या अब इतिहास हो चुका है लेकिन यहीं से भारत की सुरक्षा परिषद में शामिल होने की पक्की दौड़ शुरू हुई।
हालांकि यहीं से एक और परेशानी की भी शुरुआत हो गई। इटली के नेतृत्व में दुनिया के 9 देशों तुर्की, पाकिस्तान, अर्जेंटीना, माल्टा, कनाडा, दक्षिण कोरिया, स्पेन एवं मेक्सिको ने यूनाइटिंग फॉर कंसेंसस नाम से ग्रुप बनाकर संयुक्त राष्ट्र और सुरक्षा परिषद में किसी भी प्रकार के सुधार व विस्तार का विरोध करना प्रारंभ कर दिया। यह समूह दुनियाभर में कॉफी क्लब के नाम से मशहूर है। तत्पश्चात 2005 में भारत ने ब्राजील, जर्मनी,और जापान के साथ मिलकर सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता पाने के लिए जी-4 नेशंस नाम का समूह बनाया यह चारों देश एक दूसरे की स्थायी सदस्यता का समर्थन करते हैं लेकिन फिर से वही कॉफी क्लब के सदस्य देश इनके विरोध में आ जाते हैं जैसे अर्जेंटीना, कोस्टारिका, कोलंबिया, मेक्सिको इत्यादि ब्राजील का विरोध करते हैं; पाकिस्तान भारत का; चीन, रूस, दक्षिण कोरिया जापान का; एवं नीदरलैंड, स्पेन, माल्टा इत्यादि जर्मनी का विरोध करते हैं।
अगर बात करें कि अभी तक क्या हुआ है तो देश में केन्द्र की सत्ता पर काबिज प्रधानमंत्री मोदी की राजनीतिक पार्टी बीजेपी ने अपने मेनिफेस्टो में भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का वादा दर्ज कर रखा है. इसके साथ ही लगभग 100 देश की यात्रा के दौरान पीएम मोदी और उनके मंत्रियों ने इस प्राथमिकता पर बढ़त बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ा। देखा जाए तो सभी स्थाई सदस्य भारत को छठवें स्थायी सदस्य के रूप में शामिल किए जाने को तैयार हैं बीते कुछ सालों में चीन भी थोड़ा नरम हुआ है, वह भी भारत को स्थायी सदस्य के रूप में मान्यता देने को तैयार है बशर्ते भारत, जापान का समर्थन करना छोड़ दें। सितंबर 2014 में जब चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग भारत दौरे पर आए थे तो भारतीय विदेश मंत्रालय की तरफ से एक बयान जारी करके यह कहा गया कि चीन सुरक्षा परिषद में भारत को जगह दिए जाने का समर्थन करता है इसके साथ ही चीनी सरकार का मानना है कि मौजूदा समय में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की अहम भूमिका है बहरहाल एक बार फिर प्रधानमंत्री मोदी ने 74वें सत्र को संबोधित करते हुए 21वीं सदी के अनुसार संयुक्त राष्ट्र के सुधार व विस्तार का आह्वान किया है अब देखते हैं कि क्या होता है क्योंकि संयुक्त राष्ट्र की राजनीति बहुत अलग है इसमें देरी करने का कोई समय निर्धारित नहीं है और भारत को स्थाई सदस्यता तभी मिल सकती है जब पांचों देश एक साथ आगे आएं और उन में से कोई एक औपचारिक प्रक्रिया पूरी करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाये। फिर भी मेरे विचार से संयुक्त राष्ट्र के स्वर्ण जयंती यानी 2020 तक या 2025 तक निश्चित ही भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बन जायेगा।
08 अक्टूबर 2019