इस धरती का सबसे विशाल लोकतंत्र यानी भारत अपने गणतंत्र का सत्तरवां वर्ष पूरे ही देश में धूमधाम से मना रहा है दूसरी ओर विभिन्न भागों में देश की आधी जनसंख्या कुछ कानूनों और बढ़ती कट्टरता को लेकर विरोध प्रदर्शन में लगा हुआ है। इतना ही नहीं, जिस देश से हमने आजादी पाई वहां की विश्वप्रसिद्ध प्रतिष्ठित मीडिया समूह द इकोनॉमिस्ट ने परसों देश की मोदी सरकार को सहिष्णु भारत में उग्र राष्ट्रवाद फैलाकर इसे असहिष्णुता कि ओर ले जाने के लिए घेरा है। पत्रिका ने यह भी कहा है कि मोदी की पार्टी दशकों से कट्टर एवं भड़काऊ कार्यक्रम चला रही है और हाल ही में संशोधित किया गया नागरिकता कानून व प्रस्तावित एनआरसी देश को खूनी संघर्ष और गृह युद्ध की ओर ले जा सकता है। हालांकि यह अकेला पत्रिका नहीं है जिसने ऐसी बातें कही है पिछले साल ही विश्व की सबसे प्रतिष्ठित अखबारों में से एक, अमेरिकी टाइम मैगजीन ने भी मोदी सरकार की असहिष्णुता को लेकर इसी तरह का उन्हें डिवाईडर इन चीफ़ यानी मुख्य साजिशकर्ता कहा था।
लेकिन ऐसे कट्टरवाद और विरोध प्रदर्शनों से हमारे लोकतंत्र को कितना खतरा है और हम क्या क्या कर सकते हैं। मैं समझता हूं कि सरकारें आती-जाती रहेंगी, लोग भी आते जाते रहेंगे लेकिन जिस एक महान देश की कल्पना हमारे पूर्वजों ने की थी, मुझे नहीं लगता कि कोई एक विचारधारा और एक व्यक्ति इसकी जड़ों को हिला पाएगा। भारत दुनियां का वह देश है जिसने अपने दया और करुणा की सनातनी परंपरा को विदेशी आक्रमणकारियों और क्रूर अंग्रेजो के सामने भी नहीं छोड़ी। यह वो भारत है जिसने अपने सर्वधर्म समभाव का अनुसरण करते हुए सभी पीड़ितों और दुखियों को न सिर्फ शरण दिया बल्कि उन्हें गले भी गलाया। वे सभी क्रूर ताकतें भारत की भावनाओं को मिटा नहीं पाई तो आज सिर्फ एक व्यक्ति अपने राष्ट्रवाद से इसके लोकतंत्र को कैसे मिटा सकता है।
जब इस महान देश को आज़ादी दिलाने और लोकतंत्र बनाने की कल्पना कि गई तो न सिर्फ उसमें सभी धर्मों, जातियों, भाषाओं, बोलियों, परंपराओं, संस्कृतियों को समेटकर एक किया गया बल्कि उन आक्रमणकारियों और उनकी अत्याचारों को भी अपने इतिहास में स्थान दिया। इसलिए नहीं कि वे अत्याचारी थे, ऐसा इसलिए ताकि भारत की आने वाली पीढ़ियां अपनी सभ्यताओं, संस्कृतियों को किसी भी अत्याचारी परिस्थिति में सहेज सकें, और इस महान भारत की पवित्र मिट्टी के लिए अपने पूर्वजों द्वारा दी गई बलिदानों को ना भूलें, ना ही अपने मन में किसी के लिए द्वेष और कट्टरता होने दें।
वो कल्पना थी भारत का संविधान, जो कि विश्व का सबसे बड़ा और हस्तलिखित संविधान है। इसे बनाने में 10 देशों के संविधानों कि मदद ली गई और यह 2 साल 11 महीने व 18 दिन में बनकर तैयार हुआ। जब यह बनकर तैयार हुआ तो संविधान सभा के 284 ने इसपर हस्ताक्षर किए। इसके सलाहकार थे सर बेनेगल नरसिंह राव और मुख्य संकलनकर्ता सुरेंद्रनाथ मुखर्जी। इस संविधान को अपने हाथों से लिखा था प्रेम बिहारी रायज़ादा ने, जिसके लिए 254 निब का इस्तेमाल हुआ और इसके सभी पन्नों को चित्रों और कलाकृतियों से सजाया शांतिनिकेतन के कलाकार राममनोहर सिन्हा व नंदलाल बोस ने। देश के संविधान सभा ने 26 नवंबर 1949 को इसे अपनाया और लागू 26 जनवरी 1950 को किया। 26 जनवरी का दिन इसलिए क्योंकि इसी दिन 1929 को भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने डिक्लेरेशन ऑफ इंडियन इंडिपेंडेंस यानी पूर्ण स्वराज की घोषणा की थी। अन्ततः संविधान लागू होने के साथ ही भारत गणराज्य बन गया और इसने भारतीय शासन अधिनियम 1935 एवं भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 (10 एवं 11, जॉर्ज 6 सी 30) की जगह ली।
तब से लेकर इन 70 सालों तक भारतीय गणतंत्र और इसके लोकतांत्रिक मूल्यों में पर कुछ ही चुनौतियां अाई हैं। क्योंकि सभी का खून था शामिल यहां की मिट्टी में, जिसने घोर गरीबी और भुखमरी में एक वक़्त का सड़ा खाना खाकर भी इस अपने मानव मूल्यों की परिधि यानी संविधान को आंच नहीं आने दिया। लेकिन 1975 में एक ऐसा वक़्त भी आया जिसने देश की आत्मा पर कड़ा प्रहार करते हुए आपातकाल के सहारे इसकी नींव को चोट पहुंचाया। उसके बाद 1976 में संविधान में बड़ा बदलाव करते हुए इसमें सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्द जोड़ा गया। लेकिन जब इसके संरक्षक यानी सर्वोच्च न्यायालय से इसकी रक्षा की गुहार लगाई गई तो माननीय सुप्रीम ने कहा कि किसी भी कानून से इसके प्रस्तावना और मूल भावना से छेड़छाड़ नहीं किया जा सकता, जिसका निर्णय केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य 1973 के मामले में पहले ही दिया जा चुका है। दूसरी चुनौती इस संविधान पर आज मंडरा रही है जहां एक कानून के विरोध में 150 से ज़्यादा याचिकाएं सर्वोच्च न्यायालय में दाखिल की गई हैं।
आज विदेशों में ही नहीं देश के अंदर भी भारत और उसके लोकतन्त्र को चुनौती मिल रही है। कुछ दिन पहले ही द इकोनॉमिस्ट समूह के इंटेलिजेंस यूनिट द्वारा डेमोक्रेसी इंडेक्स 2019 जारी किया गया है जिसमें भारत 2018 के मुकाबले 10 अंक नीचे गिरकर 51 स्थान पर पहुंच गया है। यह पिछले 11 सालों में भारत का सबसे निचला स्तर है। जिसका कारण नागरिक स्वतंत्रता का ह्रास और सीएए व प्रस्तावित एनआरसी कानून को माना गया है। यह इंडेक्स इकोनॉमिस्ट समूह द्वारा 2006 से लगातार प्रकाशित की जा रही है जिसमें 167 देशों को शामिल किया गया है। इस इंडेक्स में 60 पैमानों पर मूल्यांकन किया जाता है जिनमें से 5 प्रमुख पैमाने हैं – चुनावी प्रक्रिया एवं बहुलवाद, सरकार की कार्यविधि, नागरिक स्वतंत्रता, राजनीतिक सहभागिता, राजनीतिक संस्कृति का प्रोमोशन। वैसे दुनियां की सिर्फ 4.5 प्रतिशत जनसंख्या ही फूल डेमोक्रेसी में रहती है, जिसमें प्रथम स्थान पर है नॉर्वे, दूसरे और तीसरे में क्रमशः आइसलैंड और स्वीडन हैं। इस इंडेक्स में टॉप 10 में से 7 देश यूरोप से हैं, जबकि श्रीलंका 69, बांग्लादेश 80, पाकिस्तान 108, चीन 153 व सबसे आखिरी छोर यानी 167 स्थान पर उत्तर कोरिया है।
बहरहाल आधी दुनियां में चल रहे विरोध प्रदर्शनों और लड़ाइयों के बीच भारत अपने गणतंत्र का सत्तरवां साल मनाने जा रहा है, इस गणतंत्र दिवस पर आने वाले मुख्य अतिथि भी बहुत खास हैं। जिनके आने की घोषणा ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में ही हो गई थी। ऐसा नहीं है कि भारत किसी और राष्ट्रध्यक्ष या शासनाध्यक्ष को निमंत्रित नहीं कर सकता था, लेकिन ब्राज़ील और इसके राष्ट्रपति जायर बोल्सोनारो को बुलाने के पीछे भारत की अनेकों प्रभावी कूटनीतिक सोच है जिसके तहत हम भविष्य में ऊर्जा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए बोलीविया, चिली, पेरू से लिथियम खनिज संसाधनों को पाने के साथ साथ पूरे लैटिन अमेरिकी देशों से महत्वपूर्ण संबंध बना सकते हैं, जो कि हमें एनएसजी और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अधिकाधिक फायदा पहुंचाएगी। इसका एक कारण चीन भी है क्योंकि एशिया और अफ्रीका की तरह दक्षिण अमेरिका में फिलहाल चीन का प्रभाव कम है। हालांकि जायर बोल्सोनारो से पहले भी दो बार ब्राज़ील के राष्ट्रपति भारतीय गणतंत्र के मुख्य अतिथि बन चुके हैं जिनमें शामिल है 1996 में फर्नांडो हेनरिक कार्दोसो और 2004 में लुला दे सिल्वा। हाल ही में भारत सरकार ने गणतंत्र दिवस के तीन दिन बाद होने वाले बीटिंग रिट्रीट से ब्रिटिश धुन अबाइड विथ मी को हटा दिया है, यह महात्मा गांधी का मनपसंद धुन था, जिसका इस्तेमाल उन्होंने अंग्रेजो के ही खिलाफ हथियार के रूप में आजादी पाने के लिए किया था। देखा जाए तो जब तक यह भारत रहेगा उसे चुनौतियां मिलती ही रहेंगी, चाहे वो संवैधानिक हो, सांस्कृतिक या धार्मिक। लेकिन इसकी जड़ों को कोई मिटा नहीं सकेगा। अगर धार्मिक कट्टरता उलझनें पैदा करेगी तो निश्चित ही उनकी रक्षा करने भी उन्हीं समुदायों के सदस्य आगे आएंगे जिन्होंने खुद से ज़्यादा इस देश और इसके गणतंत्र के बचे रहने की परवाह की है।
24 जनवरी 2020
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