कोरोनावायरस को लेकर दुनिया भर में क्या चल रहा है यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है लेकिन फिलहाल सबसे बड़ी बहस यह है की दुनिया भर में इस महामारी को फैलाने और छुपाने के कारण दुनिया जो त्रासदी झेल रही है क्या उसके लिए चीन को दंड दिया जा सकता है। अभी हाल ही में ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने यह घोषणा की है कि वे विश्व स्वास्थ्य संगठन और संयुक्त राष्ट्र संघ से चीन की सांप, खरगोश, चूहे, गधे, चमगादड़ इत्यादि वाली वेट मार्केट पर प्रतिबंध लगाने की मांग करेंगे, क्योंकि इसकी वजह से अनेकों वायरस जंगल से निकलकर इंसानों तक पहुंच रहा है। इसके अलावा परसों ही इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ ज्यूरिस्ट ने चीन के ख़िलाफ़ कोरोना से लोगों की ज़िंदगी खतरे में डालने को लेकर अंतरराष्ट्रीय जांच कराने और मुआवजा दिलाने के लिए दायर मुकदमे को संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग को भेज दिया है। यह याचिका चीन की कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना, पीपुल्स लिबरेशन आर्मी और वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी के खिलाफ दायर की है जिसमें आरोप लगाया है कि किस तरह चीन ने हयूमन राइट्स यूनिवर्सल चार्टर 1948 के अनुच्छेद 25क, इंटरनेशनल हेल्थ रेगुलेशन एक्ट 2005 के अनुच्छेद 6, 7, 8 एवं इंटरनेशनल कोवनेंट ऑन इकोनॉमिक्स, सोशल एंड कल्चरल राइट्स 1966 की अनुच्छेद 12 का उल्लंघन किया है, जबकि संयुक्त राष्ट्र के रिस्पांसिबिलिटी ऑफ स्टेटस फॉर इंटरनेशनली रॉन्गफुल एक्ट 2001 के तहत् चीन ऐसा कुछ नहीं करने के लिए कानूनी बाध्यकारी देश है। इस याचिका को माननीय डॉ. अतिश अग्रवाल ने दायर किया था, जो कि वर्तमान में इसी इंटरनेशनल काउंसिल ऑफ ज्यूरिस्ट के प्रेसिडेंट और ऑल इण्डिया बार एसोसिएशन के चेयरमैन भी हैं।
चीन के दोहरे चरित्र को आज दुनियाभर में कोसा जा रहा है और साथ ही चर्चा हो रही है चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की, जिनके आने के बाद से लेकर पूरी दुनिया में चीन की आक्रमक बढ़ी है। आज जितने देश प्रभावित हो रहे हैं उतने तो प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में भी शामिल नहीं थे लेकिन इस महामारी ने इस बात को जन्म दिया है कि क्या चीन को दंड दिया जा सकता है। क्योंकि अब चीन 1980 कि तरह भुखमरी वाला देश नहीं रहा, आज वो अमेरिका के बाद दूसरी सबसे बड़ी मिलिट्री पॉवर और अर्थव्यवस्था वाला सुपरपावर देश है इसलिए किसी की परवाह किए बिना ट्रेड वॉर का बदला लेने के लिए उसने पूरी दुनिया को मंदी में ढकेल दिया जिसमें वह सफल भी हुआ। इस निर्भीकता का सबसे बड़ा कारण है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में स्थायी सदस्यता और वीटो पॉवर। सभी तरफ से घिरे हुए चीन ने हाल ही में भारत से अपील की है कि वह किसी भी मंच पर कोरोनावायरस को चाइनीस या वुहान वायरस ना पुकारे। लेकिन इन सबके बीच छुपी हुई तथ्य की जांच जारी है कि कोरोनावायरस के दौरान वुहान में 2.10 करोड़ सिम और 80 लाख लैंडलाइन एकसाथ कैसे बंद हो गए। इसकी खासी चर्चा इसलिए क्योंकि भारत में आधार, पैन कार्ड की तरह चीन में सिम से सिर्फ मोबाइल नंबर लिंक नहीं है वहां पर किसी भी सिम का मतलब उस व्यक्ति की पूरी पहचान शामिल है जो फेशियल रिकॉग्निशन स्कैन सिस्टम से अटैच होता है, अधिकतर रिपोर्ट्स कह रही हैं कि चीन में संक्रमितों की आधिकारिक संख्या कुछ और थी लेकिन उसने कभी जाहिर नहीं होने दिया।
आइए हम अपने शीर्षक पर चलते हैं कि क्या चीन को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से निकाला जा सकता है इसका जवाब लेख के अंत में ही मिलेगा क्योंकि 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र चार्टर बनाया गया, तब उसमें ऐसा कोई भी प्रावधान शामिल नहीं किया गया था, जिससे किसी देश को हटाया जा सके। आज इसके 193 सदस्य हैं और यह संगठन किसी भी मामले पर कार्यवाही कर सकता है, भले ही वो कोरोनावायरस पर ह्यूमैनिटी और हेल्थ इमरजेंसी ही क्यूं न हो, लेकिन इन कार्यवाहियों के दो तरीके हैं एक है प्रोसीजरल और दूसरा नॉनप्रोसीजरल। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उसके लिए अधिकतर मामले सुरक्षा परिषद पर निर्भर हैं। इस चार्टर के आर्टिकल 23 में सुरक्षा परिषद और उसके 15 सदस्यों के गठन के बारे में कहा गया है, हालांकि यह भी जानना उतना ही दिलचस्प है कि 1963 से पहले इसमें सिर्फ 11 सदस्य हुआ करते थे लेकिन 1963 में संशोधन करके इसके सदस्यों की संख्या को बढ़ा दिया गया। चीन के संदर्भ में बात करें तो सभी स्थायी सदस्यों की तरह इसकी सबसे बड़ी शक्ति है वीटो पावर, और यह वीटो पावर की शक्ति उसे संयुक्त राष्ट्र चार्टर के आर्टिकल 27ग से मिलती है जिसमें यह निर्धारित किया गया है कि किसी भी प्रकार के प्रस्ताव को पारित करने के लिए 9 वोट चाहिए जिसमें सभी पांचों स्थायी सदस्यों की सहमति अनिवार्य है इसे कॉनकरिंग वोट कहा जाता है। जैसा कि मैंने पहले कहा चार्टर में कहीं भी नहीं लिखा कि सुरक्षा परिषद के सदस्यों को हटाया जा सकता है, इसलिए इसके कुछ नैतिक और अनैतिक तरीके हो सकते हैं जिस पर कार्य करते हुए चीन को इससे हटाया जा सकता है। पहला लीगल तरीका यह है, कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के अध्याय 18 के तहत इसमें संशोधन करके यह जोड़ा जाए कि किसी सदस्य को हटाने की क्या प्रक्रिया हो सकती है। लेकिन इसमें सबसे बड़ी चुनौती यह है कि संशोधन के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा के दो तिहाई सदस्यों की सहमति के साथ सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्यों की सहमति भी अनिवार्य है। अब ऐसे में जब चीन को हटाया जाना है, तो वह इसके पक्ष में मतदान क्यों करेगा। दूसरा, चार्टर के आर्टिकल 6 में यह लिखा हुआ है कि अगर किसी सदस्य देश ने चार्टर के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है तो उस पर कार्यवाही की जा सकती है। लेकिन फिर से यहां भी सबसे बड़ी चुनौती यही है कि इसके लिए भी सुरक्षा परिषद के पांचों स्थायी सदस्यों की सहमति अनिवार्य होगी, ऐसे में यह दोनों नैतिक प्रक्रियाएं चीन के रहते संभव नहीं हो सकती।
कुछ अन्य तरीके भी हैं, जिस पर कार्य करके चीन को हटाया जा सकता है। वे रास्ते अनैतिक है क्योंकि कानूनी प्रक्रियाओं से यह कार्यसंभव नहीं है। तीसरा तरीका यह है कि सभी सदस्य देश कोरोनावायरस की लापरवाही और भ्रामक जानकारी दिए जाने को लेकर चीन का बायकॉट कर दें, लेकिन क्या यह मुमकिन है कि रूस, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की इत्यादि देश चीन को आइसोलेट होने देंगे। फिलहाल ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का वह विश्वप्रसिद्ध वक्तव्य याद आ रहा है जब उन्होंने कहा था कि कूटनीति में कोई ना स्थायी दुश्मन होता है और ना ही स्थायी दोस्त, स्थायी तो सिर्फ देशों के हित होते हैं। ऐसे में अगर कोई देश चीन को अलग-थलग नहीं होने देंगे तो इसके पीछे का कारण है चीन पर निर्भरता। ना सिर्फ कुछ देश आज के वैश्वीकरण में लगभग सभी देशों को चीन की ज़रूरत है, भारत को भी। इसके अलावा वो भविष्य कि सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था और मिलिट्री पॉवर भी होगा, इसलिए यह तीसरा तरीका भी संभव नहीं लगता। चौथा तरीका यह है कि सभी ना सही, तो अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, जर्मनी जैसे 40-50 देश जो मिलिट्री और अर्थव्यवस्था के मामले में मजबूत हैं वह चीन को अशांतिप्रिय देश घोषित करके संयुक्त राष्ट्र और अन्य वैश्विक संगठनों पर दबाव डालकर चीन को सुरक्षा परिषद् से निकाला जा सकता है। लेकिन फिर से परेशानी वही है कि सुपरपावर चीन पर आखिर कौन दबाव डाल सकेगा। इसलिए अंततः पांचवा और आखरी तरीका यह है कि संयुक्त राष्ट्र को पूरी तरह से बदल दिया जाए। इससे भारत को स्थायी सदस्य बनाने की प्रक्रिया भी मजबूत होगी और किसी को निकाले जाने का क्लॉज भी जोड़ा जा सकेगा।
आपको जानकर हैरानी होगी की संयुक्त राष्ट्र के इतिहास में ऐसा एक बार हो चुका है जब सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य को बदला गया था, वह कोई और नहीं चीन ही है। चूंकि 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र संघ बनाया गया तब सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यों में चीन नहीं बल्कि रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी आज का ताइवान था। लेकिन 1949 में माओत्से तुंग ने अपने गोरिल्ला वॉर से मैनलैंड चाइना पर कब्जा कर लिया और कम्युनिस्ट सत्ता की स्थापना की तथा स्वयं को पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना घोषित कर लिया। इसके साथ ही चीन ने वन चाइना पॉलिसी का निर्माण भी किया जिसके तहत दुनिया के देश या तो पीपल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को मानेंगे या रिपब्लिक ऑफ चाइना को। इस तरह चीन की मिलिट्री पावर और इकोनॉमी कई गुना बढ़ गई और ताइवान कि जगह चीन को सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता दे दी गई। आज स्थिति यह है कि उस समय का रिपब्लिक ऑफ चाइना यानी ताइवान, फिलिस्तीन, कोसोवो, होली सी जैसे अनेकों देश वर्तमान सुरक्षा राष्ट्र का सदस्य बनने भर के लिए मारे मारे फिर रहे हैं क्योंकि कोई भी देश सुपरपावर अमेरिका और चीन से मुकाबला नहीं करना चाहता। ऐसे में मुझे नहीं लगता कि फिलहाल 50-100 सालों तक इसी संयुक्त राष्ट्र संघ के भरोसे चीन को सुरक्षा परिषद से बाहर किया जा सकेगा। फिर भी हम देखेंगे कि दुनिया इस लापरवाही को लेकर संयुक्त राष्ट्र और चीन पर क्या दबाव डालती है।
06 अप्रैल 2020
@Published :
- The_Hitavada Newspaper, 09 April 2020, Thrusday, #Raipur Edition (City line), Page 04 https://www.ehitavada.com/article.php?id=RCpage_2020-04-09_0afb58277aa850677e3de460f216058e